Monday, August 4, 2014

प्राचीन भारत में रसायन की परंपरा – १


भारत में रसायन शास्त्र की अति प्राचीन परंपरा रही है। पुरातन ग्रंथों में धातुओं, अयस्कों, उनकी खदानों, यौगिकों तथा मिश्र धातुओं की अद्भुत जानकारी उपलब्ध है। इन्हीं में रासायनिक क्रियाओं में प्रयुक्त होने वाले सैकड़ों उपकरणों के भी विवरण मिलते हैं।
वस्तुत: किसी भी देश में किसी ज्ञान विशेष की परंपरा के उद्भव और विकास के अध्ययन के लिए विद्वानों को तीन प्रकार के प्रमाणों पर निर्भर करना पड़ता है-

१. वहां का प्राचीन साहित्य २. पारंपरिक ज्ञान-जो पीढ़ी दर पीढ़ी जीवित बच जाता हो ३. पुरातात्विक प्रमाण। इस दृष्टि से भारत में रसायनशास्त्र के उद्भव काल के निर्धारण के लिए विशाल संस्कृत साहित्य को खंगालना ही उत्तम जान पड़ता है। उल्लेखनीय है कि भारत में किसी भी प्रकार के ज्ञान के प्राचीनतम स्रोत के रूप में वेदों को माना जाता है। इनमें भी ऐसा समझा जाता है कि ऋग्वेद सर्वाधिक प्राचीन है। अर्वाचीन काल में ईसा की अठारहवीं शताब्दी से नये-नये तत्वों की खोज का सिलसिला प्रारंभ हुआ। इसके पूर्व केवल सात धातुओं का ज्ञान मानवता को था। ये हैं-स्वर्ण, रजत, तांबा, लोहा, टिन, लेड (सीसा) और पारद। इन सभी धातुओं का उल्लेख प्राचीनतम संस्कृत साहित्य में उपलब्ध है, जिनमें ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद भी सम्मिलित हैं। वेदों की प्राचीनता ईसा से हजारों वर्ष पूर्व निर्धारित की गई है।

इस प्रकार वेदों में धातुओं के वर्णन के आधार पर हम भारत में रसायन शास्त्र का प्रारंभ ईसा से हजारों वर्ष पूर्व मान सकते हैं। उल्लेखनीय है कि उपनिषदों का रचना काल भी यजुर्वेद के आसपास ही माना जाता है जबकि छांदोग्य उपनिषद्‌ में धात्विक मिश्रणन का स्पष्ट वर्णन मिलता है। यदि हम इसे पर्याप्त न मानें और कहें कि केवल रसायन शास्त्र में प्रयुक्त प्रक्रमों एवं रासायनिक क्रियाओं के ज्ञान के समुचित प्रमाण के साथ ही हम रसायन शास्त्र का प्रारंभ मान सकते हैं, तो भी हमें ईसा के एक हजार वर्ष पूर्व के काल (ईसा पूर्व प्रथम सहस्राब्दी) पर तो सहमत होना ही पड़ेगा। यही वह काल था जब विश्व प्रसिद्ध चरक एवं सुश्रुत संहिताओं का प्रणयन हुआ, जिनमें औषधीय प्रयोगों के लिए पारद, जस्ता, तांबा आदि धातुओं एवं उनकी मिश्र धातुओं को शुद्ध रूप में प्राप्त करने तथा सहस्त्रों औषधियों के विरचन में व्यवहृत रासायनिक प्रक्रियाओं यथा-द्रवण, आसवन, उर्ध्वपातन आदि का विस्तृत एवं युक्तियुक्त वर्णन मिलता है। नि:संदेह इस प्रकार के ज्ञानार्जन का प्रारंभ तो निश्चित रूप से इसके बहुत पहले से ही हुआ होगा। उल्लेखनीय है कि इन कालजयी ग्रंथों के लेखन के पश्चात, यद्यपि इसी काल में (ईसा पूर्व तृतीय शताब्दी) में कौटिल्य ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘अर्थशास्त्र‘ की रचना की जिसमें धातु, अयस्कों, खनिजों एवं मिश्र धातुओं से संबंधित अत्यंत सटीक जानकारी तथा उनके खनन, विरचन, खानों के प्रबंधन तथा धातुकर्म की आश्चर्यजनक व्याख्या मिलती है। भारत में इस प्रकार के वैज्ञानिक ज्ञान का यह ग्रंथ प्राचीनतम उदाहरण प्रस्तुत करता है। प्रथम सहस्राब्दी की दूसरी शताब्दी से १२वीं शताब्दी तक तो ऐसी पुस्तकों की भरमार देखने को मिलती है जो शुद्ध रूप से केवल रसायन शास्त्र पर आधारित हैं और जिनमें रासायनिक क्रियाओं, प्रक्रियाओं का सांगोपांग वर्णन है। इनमें खनिज, अयस्क, धातुकर्म, मिश्र धातु विरचन, उत्प्रेरक, सैद्धांतिक एवं प्रायोगिक रसायन तथा उनमें काम आने वाले सैकड़ों उपकरणों आदि का अत्यंत गंभीर विवरण प्राप्त होता है।

‘भारतीय बौद्धिक संपदा‘ के फरवरी, २००० के अंक में १९४० में प्रकाशित एक मराठी पुस्तक ‘रसमंजरी‘ (लेखक- टी.जी.काले) के हवाले से ऐसी १२७ पुस्तकों की सूची प्रकाशित है। स्मरणीय है कि इस सूची में चरक एवं सुश्रुत संहिताएं सम्मिलित नहीं हैं। इन पुस्तकों में वर्णित अनेक तथ्य एवं प्रक्रियाएं अब आधुनिक रसायन शास्त्र के मानदंडों पर भी खरी उतरने लगी हैं।

सर्वप्रथम द्वितीय शताब्दी में नागार्जुन द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘रस रत्नाकार‘ को लें। ऐसा विश्वास किया जाता है कि छठी शताब्दी में जन्मे इसी नाम के एक बौद्ध रसायनज्ञ ने इस पुस्तक का पुनरावलोकन किया। इसीलिए यह पुस्तक दो रूपों में उपलब्ध है। कुछ भी हो, यह पुस्तक अपने में रसायन का तत्कालीन अथाह ज्ञान समेटे हुए हैं। छठी शताब्दी में ही वराहमिहिर ने अपनी ‘वृहत्‌ संहिता‘ में अस्त्र-शस्त्रों को बनाने के लिए अत्यंत उच्च कोटि के इस्पात के निर्माण की विधि का वर्णन किया है। भारतीय इस्पात की गुणवत्ता इतनी अधिक थी कि उनसे बनी तलवारों के फारस आदि देशों तक निर्यात किये जाने के ऐतिहासिक प्रमाण मिले हैं।

सर्वाधिक पुस्तकें आठवीं शताब्दी से १२वीं शताब्दी के मध्य लिखी गएं। इनमें से प्रमुख हैं-वाग्भट्ट की अष्टांग हृदय, गोविंद भगवत्पाद की रस हृदयतंत्र एवं रसार्णव, सोमदेव की रसार्णवकल्प एवं रसेंद्र चूणामणि तथा गोपालभट्ट की रसेंद्रसार संग्रह। कुछ अन्य महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं-रसकल्प, रसरत्नसमुच्चय, रसजलनिधि, रसप्रकाश सुधाकर, रसेंद्रकल्पद्रुम, रसप्रदीप तथा रसमंगल आदि।

भारत में रसायन की समृद्धशाली प्राचीन परंपरा के पुरातात्विक प्रमाण भी समस्त देशों में बिखरे पड़े हैं। पुरातात्विक स्थलों से प्राप्त धातु आदि के नमूनों के रासायनिक विश्लेषण से जहां उनकी उच्च गुणवत्ता का परिचय मिलता है, वहीं अनेक पदार्थों की कार्बन डेटिंग से प्राचीनता भी अकाट्य रूप से स्थापित होती है। उत्तर से दक्षिण एवं पूर्व से पश्चिम, सभी दिशाओं में ईसा पूर्व ३००० वर्ष से ३०० वर्ष ईसा पूर्व की अवधि में भी सक्रिय रही धातु की खदानों के पुरातात्विक प्रमाण मिले हैं। प्रमुखत: उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, बंगाल, बिहार, पंजाब, गुजरात आदि राज्यों में इनका पता चला है। उत्खनन से उजागर हुए नालंदा, हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, लोथल एवं तक्षशिला आदि स्थलों से प्राप्त लोहा, तांबा, रजत, सीसा आदि धातुओं की शुद्धता ९५ से ९९ प्रतिशत तक पाई गई है। इन्हीं स्थलों से पीतल और कांसा, मिश्र धातुएं भी प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुई है। इनकी शुद्धता इस बात की परिचायक है कि भारत में उच्चकोटि के धातुकर्म की प्राचीन परंपरा रही है। पुरातात्विक स्थलों से धातुकर्म में प्रयुक्त होने वाली जिन भट्ठियों आदि का पता चला है वे सभी संस्कृत पुस्तकों के विवरणों से मेल खाती है। हट्टी की स्वर्ण खदान में ६०० फुट की गहराई पर पाया गया उर्ध्वाधर शाफ्ट तकनीकी के क्षेत्र में भारतीय कौशल का जीता जागता उदाहरण है।

भारत की बहुत सी प्राचीन रसायन परंपराएं पीढ़ी दर पीढ़ी चलते हुए आधुनिक समय तक जीवित हैं। आज भी हजारों वैद्य चरक द्वारा निर्देशित रीति से धातु आधारित एवं वानस्पतिक स्रोत वाली औषधियों का विरचन कर रहे हैं, जिनके दौरान अनेकानेक रासायनिक प्रक्रियाएं संपादित करनी पड़ती हैं। ईस्वी वर्ष १८०० में भी भारत में, व्रिटिश दस्तावेजों के अनुसार, विभिन्न धातुओं को प्राप्त करने के लिए लगभग २०,००० भट्ठियां काम करती थीं जिनमें से दस हजार तो केवल लौह निर्माण भट्ठियां थीं और उनमें ८०,००० कर्मी कार्यरत थे। इस्पात उत्पाद की गुणवत्ता तत्कालीन अत्युत्तम समझे जाने वाले स्वीडन के इस्पात से भी अधिक थी। इसके गवाह रहे हैं सागर के तत्कालीन सिक्का निर्माण कारखाने के अंग्रेज प्रबंधक कैप्टन प्रेसग्रेन तथा एक अन्य अंग्रेज मेजर जेम्स फ्र्ैंकलिन। उसी समय तथा उसके काफी बाद तक लोहे के अतिरिक्त रसायन आधारित कई अन्य वस्तुएं यथा-साबुन, बारूद, नील, स्याही, गंधक, तांबा, जस्ता आदि भी भारतीय तकनीकी से तैयार की जा रही थीं। काफी बाद में अंग्रेजी शासन के दौरान पश्चिमी तकनीकी के आगमन के साथ भारतीय तकनीकी विस्मृत कर दी गई।

Tuesday, July 29, 2014

गणेश स्तुति और लक्ष्मी आरती


सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः।
सर्वे भद्र!णिपश्यन्तु मा कश्चिद्दुःख भाग भवेत् ।
!!!!! ~~~~~~ वक्रतुण्ड महाकाय सुर्य कोटि समप्रभ ~~~~~~ !!!!!
!!!!! ~~~~~~ निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ~~~~~~ !!!!!
प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम् ।
भक्तावासं स्मरेन्नित्यं आयुःकामार्थसिद्धये ॥ १॥
प्रथमं वक्रतुण्डं च एकदन्तं द्वितीयकम् ।
तृतीयं कृष्णपिङ्गाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम् ॥ २॥
लम्बोदरं पञ्चमं च षष्ठं विकटमेव च ।
सप्तमं विघ्नराजेन्द्रं धूम्रवर्णं तथाष्टमम् ॥ ३॥
नवमं भालचन्द्रं च दशमं तु विनायकम् ।
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम् ॥ ४॥
द्वादशैतानि नामानि त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः ।
न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरः प्रभुः ॥ ५॥
विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम् ।
पुत्रार्थी लभते पुत्रान्मोक्षार्थी लभते गतिम् ॥ ६॥
जपेद्गणपतिस्तोत्रं षड्भिर्मासैः फलं लभेत् ।
संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशयः ॥ ७॥
अष्टेभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वा यः समर्पयेत् ।
तस्य विद्या भवेत्सर्वा गणेशस्य प्रसादतः ॥ ८ !!!
लक्ष्मी जी की आरती
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ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता ।
तुमको निशदिन सेवत, हर विष्णु विधाता ॥
उमा, रमा, ब्रह्माणी, तुम ही हो जग-माता ।
सूर्य चन्द्रमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता ॥
दुर्गा रुप निरंजनि, सुख-सम्पत्ति दाता ।
जो को‌ई तुमको ध्यावत, ऋद्घि-सिद्घि धन पाता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता ॥
तुम पाताल बसंती, तुम ही शुभदाता ।
कर्म प्रभाव प्रकाशिनि, भवनिधि की त्राता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता ॥
जिस घर में तुम रहती, सब सद्‍गुण आता ।
सब सम्भव हो जाता, मन नहीं घबराता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता ॥
तुम बिन यज्ञ न होवे, वस्त्र न को‌ई पाता ।
खान पान का वैभव, सब तुमसे आता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता ॥
शुभ-गुण मंदिर सुन्दर, क्षीरोदधि-जाता ।
रत्‍न चतुर्दश तुम बिन, कोई नहीं पाता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता ॥
श्री महालक्ष्मीजी की आरती, जो को‌ई नर गाता ।
उर आनन्द समाता, पाप उतर जाता ॥

भारतीय संस्कृति का प्रतीक ‘नमस्कार’ एवं इसके आध्यात्मिक लाभ



भारतीय संस्कृति का प्रतीक ‘नमस्कार’ एवं इसके आध्यात्मिक लाभ
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१.नमस्कार के लाभ-
२. मंदिर में प्रवेश करते समय सीढियों को नमस्कार कैसे करें ?
३. देवता को नमन करने की योग्य पद्धति व उसका आधारभूत शास्त्र क्या है ?
४. वयोवृद्धों को नमस्कार क्यों करना चाहिए ?
५. किसी से मिलने पर हस्तांदोलन (हैंडशेक) न कर, हाथ जोडकर नमस्कार करना इष्ट क्यों है ?
६. मृत व्यक्ति को नमस्कार क्यों करना चाहिए ?
७. विवाहोपरांत पति व पत्नीको एक साथ नमस्कार क्यों करना चाहिए ?
८. किसी से भेंट होने पर नमस्कार कैसे करें ?
९. नमस्कार में क्या करें व क्या न करें ?

ईश्वर के दर्शन करते समय अथवा ज्येष्ठ या सम्माननीय व्यक्तिसे मिलनेपर हमारे हाथ अनायास ही जुड जाते हैं । हिंदू मनपर अंकित एक सात्त्विक संस्कार है `नमस्कार’ । भक्तिभाव, प्रेम, आदर, लीनता जैसे दैवीगुणोंको व्यक्त करनेवाली व ईश्वरीय शक्ति प्रदान करनेवाली यह एक सहज धार्मिक कृति है । नमस्कारकी योग्य पद्धतियां क्या है, नमस्कार करते समय क्या नहीं करना चाहिए, इसका शास्त्रोक्त विवरण यहां दे रहे हैं ।

१. नमस्कार के लाभ – मूल धातु `नम:’ से `नमस्कार’ शब्द बना है । `नम:’ का अर्थ है नमस्कार करना, वंदन करना । `नमस्कारका मुख्य उद्देश्य है – जिन्हें हम नमन करते हैं, उनसे हमें आध्यात्मिक व व्यावहारिक लाभ हो ।

व्यावहारिक लाभ : देवता अथवा संतोंको नमन करनेसे उनके गुण व कर्तृत्वका आदर्श हमारे समक्ष सहज उभर आता है । उसका अनुसरण करते हुए हम स्वयंको सुधारनेका प्रयास करते हैं ।

आध्यात्मिक लाभ :
१. नम्रता बढती है व अहं कम होता है ।
२. शरणागिति व कृतज्ञताका भाव बढता है ।
३. सात्त्विकता मिलती है व आध्यात्मिक उन्नति शीघ्र होती है ।

२. मंदिर में प्रवेश करते समय सीढियों को नमस्कार कैसे करें ? – सीढियों को दाहिने हाथ की उंगलियों से स्पर्श कर, उसी हाथ को सिरपर फेरें । `मंदिर के प्रांगण में देवताओं की तरंगों के संचारके कारण सात्त्विकता अधिक होती है । परिसर में फैले चैतन्य से सीढियां भी प्रभावित होती हैं । इसलिए सीढी को दाहिने हाथ की उंगलियों से स्पर्श कर, उसी हाथको सिर पर फेरने की प्रथा है । इससे ध्यान में आता है कि, सीढियों की धूल भी चैतन्यमय होती है; हमें उसका भी सम्मान करना चाहिए ।

३. देवता को नमन करने की योग्य पद्धति व उसका आधारभूत शास्त्र क्या है ? -

# `देवताको नमन करते समय, सर्वप्रथम दोनों हथेलियों को छातीके समक्ष एक-दूसरे से जोडें । हाथों को जोडते समय उंगलियां ढीली रखें । हाथों की दो उंगलियों के बीच अंतर न रख, उन्हें सटाए रखें । हाथों की उंगलियों को अंगूठे से दूर रखें । हथेलियों को एक-दूसरे से न सटाएं; उनके बीच रिक्त स्थान छोडें ।

# हाथ जोडने के उपरांत, पीठको आगे की ओर थोडा झुकाएं ।

# उसी समय सिरको कुछ झुकाकर भ्रूमध्य (भौहों के मध्य भाग) को दोनों हाथों के अंगूठों से स्पर्श कर, मनको देवताके चरणों में एकाग्र करने का प्रयास करें ।

# तदुपरांत हाथ सीधे नीचे न लाकर, नम्रतापूर्वक छाती के मध्य भाग को कलाईयों से कुछ क्षण स्पर्श कर, फिर हाथ नीचे लाएं ।

इस प्रकार नमस्कार करने पर, अन्य पद्धतियों की तुलना में देवता का चैतन्य शरीर द्वारा अधिक ग्रहण किया जाता है । साष्टांग नमस्कार : षड्रिपु, मन व बुद्धि, इन आठों अंगों से ईश्वर की शरण में जाना अर्थात् साष्टांग नमस्कार ।

४. वयोवृद्धों को नमस्कार क्यों करना चाहिए ? – घर के वयोवृद्धों को झुककर लीनभाव से नमस्कार करने का अर्थ है, एक प्रकार से उनमें विद्यमान देवत्वकी शरण जाना । वयोवृद्धों के माध्यम से, जीव को आवश्यक देवता का तत्त्व ब्रह्मांड से मिलता है । उनसे प्राप्त सात्त्विक तरंगों के बलपर, कष्टदायक स्पंदनों से अपना रक्षण करना चाहिए । इष्ट देवता का स्मरण कर की गई आशीर्वादात्मक कृतिसे दोनों जीवों में ईश्वरीय गुणों का संचय सरल होता है ।

५. किसी से मिलने पर हस्तांदोलन (हैंडशेक) न कर, हाथ जोडकर नमस्कार करना इष्ट क्यों है ?

# जब दो जीव हस्तांदोलन करते हैं, तब उनके हाथों से प्रक्षेपित राजसी-तामसी तरंगें हाथों की दोनों अंजुलियों में संपुष्ट होती हैं । उनके शरीर में इन कष्टदायक तरंगों के वहन का परिणाम मन पर होता है ।

# यदि हस्तांदोलन करने वाला अनिष्ट शक्ति से पीडित हो, तो दूसरा जीव भी उससे प्रभावित हो सकता है । इसलिए सात्त्विकता का संवर्धन करने वाली नमस्कार जैसी कृति को आचरण में लाएं । इस से जीव को विशिष्ठ कर्म हेतु ईश्वर का चैतन्य मय बल तथा ईश्वर की आशीर्वाद रूपी संकल्प-शक्ति प्राप्त होती है ।

# हस्तांदोलन करना पाश्चात्य संस्कृति है । हस्तांदोलन की कृति, अर्थात् पाश्चात्य संस्कृति का पुरस्कार । नमस्कार, अर्थात् भारतीय संस्कृति का पुरस्कार । स्वयं भारतीय संस्कृति का पुरस्कार कर, भावी पीढी को भी यह सीख दें ।

६. मृत व्यक्ति को नमस्कार क्यों करना चाहिए ? – त्रेता व द्वापर युगों के जीव कलियुग के जीवों की तुलना में अत्यधिक सात्त्विक थे । इसलिए उस काल में साधना करने वाले जीव को देहत्याग के उपरांत दैवगति प्राप्त होती थी । कलियुग में कर्मकांड के अनुसार, ‘ईश्वर से मृतदेह को सद्गति प्राप्त हो’, ऐसी प्रार्थना कर मृत देह को नमस्कार करने की प्रथा है ।

७. विवाहोपरांत पति व पत्नी को एक साथ नमस्कार क्यों करना चाहिए ? – विवाहोपरांत दोनों जीव गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते हैं । गृहस्थाश्र में एक-दूसरे के लिए पूरक बनकर संसारसागर-संबंधी कर्म करना व उनकी पूर्ति हेतु एक साथ बडे-बूढों के आशीर्वाद प्राप्त करना महत्त्वपूर्ण है । इस प्रकार नमस्कार करने से ब्रह्मांड की शिव-शक्तिरूपी तरंगें कार्यरत होती हैं । गृहस्थाश्रम में परिपूर्ण कर्म होकर, उनसे योग्य फलप्राप्ति होती है । इस कारण लेन-देनका हिसाब कम निर्माण होता है । एकत्रित नमस्कार करते समय पत्नी को पति के दाहिनी ओर खडे रहना चाहिए ।

८. किसी से भेंट होने पर नमस्कार कैसे करें ? – किसी से भेंट हो, तो एक-दूसरे के सामने खडे होकर, दोनों हाथों की उंगलियों को जोडें । अंगूठे छाती से कुछ अंतरपर हों । इस प्रकार कुछ झुककर नमस्कार करें । इस प्रकार नमस्कार करने से जीव में नम्रभाव का संवर्धन होता है व ब्रह्मांड की सात्त्विक-तरंगें जीव की उंगलियों से शरीर में संक्रमित होती हैं । एक-दूसरे को इस प्रकार नमस्कार करने से दोनों की ओर आशीर्वादयुक्त तरंगों का प्रक्षेपण होता है ।

९. नमस्कार में क्या करें व क्या न करें ? -
# नमस्कार करते समय नेत्रोंको बंद रखें ।
# नमस्कार करते समय पादत्राण धारण न करें ।
# एक हाथ से नमस्कार न करें ।
# नमस्कार करते समय हाथ में कोई वस्तु न हो ।
# नमस्कार करते समय पुरुष सिर न ढकें व स्त्रियों को सिर ढकना चाहिए ।


Saturday, June 21, 2014

जून २१ के विचार

भीतर से पूर्ण शांत और बाहर से पूर्ण क्रियाशील 

आज जरुरत भारत माँ को ऐसे वीर जवानों की 
परंपरा जो निभा सके फिर हस हस के बलिदानों की 


गीता के अनुसार कर्मों से संन्यास लेने अथवा उनका परित्याग करने की अपेक्षा कर्मयोग अधिक श्रेयस्कर है। कर्मों का केवल परित्याग कर देने से मनुष्य सिद्धि अथवा परमपद नहीं प्राप्त करता। मनुष्य एक क्षण भी कर्म किए बिना नहीं रहता। सभी अज्ञानी जीव प्रकृति से उत्पन्न सत्व, रज और तम, इन तीन गुणों से नियंत्रित होकर, परवश हुए, कर्मों में प्रवृत्त किए जाते हैं। मनुष्य यदि बाह्र दृष्टि से कर्म न भी करे और विषयों में लिप्त न हो तो भी वह उनका मन से चिंतन करता है। इस प्रकार का मनुष्य मूढ़ औरमिथ्या आचरण करनेवाला कहा गया है। कर्म करना मनुष्य के लिए अनिवार्य है। उसके बिना शरीर का निर्वाह भी संभव नहीं है। भगवान् कृष्ण स्वयं कहते हैं कि तीनों लोकों में उनका कोई भी कर्तव्य नहीं है। उन्हें कोई भी अप्राप्त वस्तु प्राप्त करनी नहीं रहती। फिर भी वे कर्म में संलग्न रहते हैं। यदि वे कर्म न करें तो मनुष्य भी उनके चलाए हुए मार्ग का अनुसरण करने से निष्क्रिय हो जाएँगे। इससे लोकस्थिति के लिए किए जानेवाले कर्मों का अभाव हो जाएगा जिसके फलस्वरूप सारी प्रजा नष्ट हो जाएगी। इसलिए आत्मज्ञानी मनुष्य को भी, जो प्रकृति के बंधन से मुक्त हो चुका है, सदा कर्म करते रहना चाहिए। अज्ञानी मनुष्य जिस प्रकार फलप्राप्ति की आकांक्षा से कर्म करता है उसी प्रकार आत्मज्ञानी को लोकसंग्रह के लिए आसक्तिरहित होकर कर्म करना चाहिए। इस प्रकार आत्मज्ञान से संपन्न व्यक्ति ही, गीता के अनुसार, वास्तविक रूप से कर्मयोगी हो सकता है।





Friday, May 2, 2014

Maharana Pratap Drama on Sony TV

I am fond of watching such Drama's on TV and encourage today's generation to watch such episodes on TV instead to just spent your time or I will say wasting your time in Bollywood Movies which will not give you anything.

This series will inculcate the good habits in children and children will learn about our BHARTIYA Culture and values we have since long.

The character of Maharana Prataap is very good and teaches us how to face the challenges and we should always filled with enthusiasm.

At very short age, He really done many many things for his motherland and help his king n his father Rana Uday Singh in many wars with Mughals.



Alibagh and Nagaon Beach Visit


I visited Alibagh and Nagaon Beach on 1st May 2014.
We have travelled by our Car i.e. Mahindra Quanto.
Its around 150 Km run one side.

The route is as such -
We started from Amanora City at around 6:00 AM in the morning. We take Diesel in the Car for Rs. 2000/- at a near by Petrol Pump.
We take the old Pune Mumbai Highway route via Pimpri Chichwad.
There is a traffic started to flow as we reach outside pune and road is a single road till Lonavala.
We reach lonavala in 2 Hrs. or so. But forget the exact route and get into the trap of Google Map which will always take you on the ExpressWay.
There is a toll of Rs. 61 for Lonawala from old Pune Mumbai Highway.

We revolve around lonavala old and new highway 2 times and then finally on our way to Beach through Lonawala.
After passing through Lonawala, its Khopoli, there also one toll was there of Rs. 20.
After passing from Khopoli, Idea 2g Net connection got away, But thanks to Sygic app on my Nexus 5 which get through us through the route issue. Otherwise we might have run around 20 Km more for alibagh beach.

We are on the way of Pen-Alibagh Road which is the busiest road on the way from Pune to Alibagh. Really it was tough to pass on that road. There is heavy traffic on that road. We just run for around 10 - 15 Km at the speed of 5-10 Km.

After pass on from that road from Pen, We reach Poynad Village and from there finally to Alibagh.

We spent around an Hour at Alibagh Beach which is quite a decent Beach and a quite place.
We click some good pics and also take a ride at one bike whose tyres are very wide.
There is a Quila which is seen from the shore and it reside in between the sea but we decided not to go there.

After that we started for the Nagaon Beach which is around 15 Km away from Alibagh.
Nagaon Beach is must busy beach and public is doing all the stuff like doing Banana Ride and Gliding at this beach.
There was lots of fun at that beach and all the masti there for 2 hrs.
We do Tonga Ride at this beach and play with all the water waves along with my son Piyush and my daughter shruti.

After almost 2 Hrs of fun there We started to move back to Pune.
We reach pune back through Express Highway in around 3 and a half Hrs and reach back home at 5:30 PM.